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Atal Bihari Vajpayee Death Anniversary: अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रिय कविताएं…

पूर्व प्रधानमंत्री और भारत रत्‍न अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) एक लोकप्रिय राजनेता और कुशल वक्‍ता थे. इसके अलावा वह एक कवि ह्रदय (Poet Heart) शख्सियत भी थे. उनकी कविताएं समकालीन समाज को छूते हुए आम आदमी की कविताएं (Poems) थीं. सत्ता और खास वर्ग पर प्रहार भी उनकी कविताओं में प्रखरता के साथ मिलता है. यही वजह है कि उनकी कविताएं आम लोगों में बहुत लोकप्रिय रहीं. लोगों ने जितना उन्‍हें देश के प्रधानमंत्री के तौर पर सम्‍मान दिया, उतना ही प्‍यार उनकी कविताओं को भी मिला. वह संसद से लेकर अपने सार्वजनिक भाषणों में अपनी कविताओं का इस्‍तेमाल किया करते थे. आज हम आपके लिए ‘कविताकोश’ के साभार से लेकर उपस्थि‍त हुए हैं, अटल बिहारी वाजपेयी की कुछ बेहद लोकप्रिय कविताएं.

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पावों के नीचे अंगारे
बाधाएं आती हैं आएं
घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ कांटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

ओस की बूंदें
हरी हरी दूब पर
ओस की बूंदें
अभी थी,
अभी नहीं हैं|
ऐसी खुशियाँ
जो हमेशा हमारा साथ दें
कभी नहीं थी,
कहीं नहीं हैं|

क्कांयर की कोख से
फूटा बाल सूर्य,
जब पूरब की गोद में
पाँव फैलाने लगा,
तो मेरी बगीची का
पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा,
मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूं
या उसके ताप से भाप बनी,
ओस की बूंदों को ढूंढूं?

सूर्य एक सत्य है
जिसे झुठलाया नहीं जा सकता
मगर ओस भी तो एक सच्चाई है
यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है
क्यों न मैं क्षण क्षण को जिऊं?
कण-कण मेँ बिखरे सौन्दर्य को पिऊं?

सूर्य तो फिर भी उगेगा,
धूप तो फिर भी खिलेगी,
लेकिन मेरी बगीची की
हरी-हरी दूब पर,
ओस की बूंद
हर मौसम में नहीं मिलेगी|

दोनों ओर शकुनि
कौरव कौन
कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है|
दोनों ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है|
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है|
हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है|
बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है|

सपने सच होने बाकी है
पंद्रह अगस्त का दिन कहता
आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी है,
रावी की शपथ न पूरी है॥

जिनकी लाशों पर पग धर कर
आज़ादी भारत में आई,
वे अब तक हैं खानाबदोश
ग़म की काली बदली छाई॥

कलकत्ते के फुटपाथों पर
जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के
बारे में क्या कहते हैं॥

हिंदू के नाते उनका दुख
सुनते यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो
सभ्यता जहां कुचली जाती॥

इंसान जहां बेचा जाता,
ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियाँ भरता है,
डालर मन में मुस्काता है॥

भूखों को गोली नंगों को
हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कंठों से जेहादी
नारे लगवाए जाते हैं॥

लाहौर, कराची, ढाका पर
मातम की है काली छाया।
पख्तूनों पर, गिलगित पर है
ग़मगीन गुलामी का साया॥

बस इसीलिए तो कहता हूँ
आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊं मैं?
थोड़े दिन की मजबूरी है॥

दिन दूर नहीं खंडित भारत को
पुन: अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक
आज़ादी पर्व मनाएँगे॥

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से
कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएं,
जो खोया उसका ध्यान करें॥

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Lokesh Rajak

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